साई भवन

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 गीता के पहले अध्याय के पैंतीसवें श्लोक में अर्जुन का प्रश्न था – 

हे गोविंद, ऐसे राज्य और खुशी का क्या मतलब कि जिनके साथ आप इन सब चीजों का आनंद ले सकते हैं, वे ही अब लडऩे के लिए कतार में सामने खड़े हैं? मेरे गुरु, पिता, बच्चे, दादा, पोते, मामा, ससुर, जीजा-साले और यहां तक कि मेरे अपने भाई भी मुझसे लडऩे के लिए तैयार खड़े हैं, अपने जीवन को दांव पर लगाने के लिए खड़े हैं। बेशक वे सब मुझे मारना चाहते हों, पर मेरी उन्हें मारने की कोई इच्छा नहीं है। हे कृष्ण, सांसारिक साम्राज्य तो बहुत ही तुच्छ चीज है, मैं तो तीनों लोकों के बदले भी धृतराष्ट्र के पुत्रों से युद्ध करने के लिए तैयार नहीं हूं। अपने ही परिवार वालों को मारकर कोई कैसे खुश रह सकता है?  यह सब कहते और मानते भी हैं कि ईश्वर हर प्राणी के भीतर, बल्कि हर कण में है। तो फिर क्या वह दुर्योधन के भीतर नहीं था? क्या वह आज के दुराचारियों के भीतर नहीं है? यदि है तो वह कुछ करता क्यों नहीं?

गीता के तीसरे अध्याय के पांचवें श्लोक में कहा गया है कि कोई भी मनुष्य कर्म किए बिना नहीं रह सकता। जीवन के हर पल हम कर्म करने के लिए बाध्य हैं, चाहे हमें यह पसंद आए या नहीं। यह गुणों के प्रभाव की वजह से होता है।

श्री कृष्ण जी कहते है– ईश्वर निर्गुण है। ईश्वर में कोई गुण नहीं होता। पूरा जगत इन तीन मूल गुणों के आधार पर ही काम करता है। दुनिया में जो कुछ भी हो रहा है, यहां जो भी विशेषताएं हैं, उनकी पहचान तीन गुणों में से किसी एक या तीनों के मिश्रण के रूप में होती है। ये तीन गुण हैं तमस, रजस और सत्व। यहां तक कि भोजन को भी तामसिक, राजसिक और सात्विक की श्रेणी में बांटा गया है। जैसा कर्म करोगे फल तो वैसा ही मिलेगा, धोखेबाजी का परिणाम तो इसी जगत में मिलता है। भोजन जैसा खाओगे वैसे ही परिणाम मिलेंगे।


ये तीनों गुण लगातार हर चीज को प्रभावित करते रहते हैं। इन तीन गुणों का आधार इस जगत में मौजूद तीन मूलभूत शक्तियां हैं। इन्हें सृजन, संरक्षण या पालन और विनाश के रूप में जाना जाता है। 

तमस की नजदीकी मौत और विनाश से है। जड़ता को तमस कहा जाता है। 


क्रियाकलाप को रजस कहा जाता है और रजस संरक्षण के नजदीक है और उलझाने वाला है। 

अपनी सीमाओं से परे जाने को सत्व कहते हैं। सत्व मुक्ति के निकट है। 

ये तीन गुण लगातार खेल खेल रहे हैं। जब तक ये गुण अपना खेल खेलेंगे, तब तक क्रियाकलाप होंगे ही।

 
श्री कृष्ण जी ने जोर देकर कहा है कि ईश्वरीय तत्व हर चीज और हर इंसान में एक ही अनुपात में मौजूद होता है। आप उसे न तो खत्म कर सकते हैं और न पैदा कर सकते हैं। आप उसका कुछ भी नहीं कर सकते।


जिसे आप ईश्वर कहते हैं, वह गुणों से परे है इसलिए वह कर्म नहीं कर सकता। ईश्वर इस जगत का बीज है। बीज निष्क्रिय ही होता है।


जो इन तीन गुणों से आगे निकल जाता है, वह पंचतत्वों और उनके छलावों से भी ऊपर उठ जाता है जिसका मतलब है भौतिकता से परे चले जाना। जिसे आप ईश्वर कहते हैं, वह गुणों से परे है इसलिए वह कर्म नहीं कर सकता। ईश्वर इस जगत का बीज है। बीज निष्क्रिय ही होता है। ऐसा नहीं होता कि बीज अचानक छलांग मारे और कुछ कर गुजरे, लेकिन यह बीज ही है जिसकी बदौलत एक पेड़ का अस्तित्व होता है। गुणों का संबंध पेड़ से होता है, बीज से नहीं। जब तक गुणों का खेल जारी है, कर्म अनिवार्य रूप से होगा।


यह संसार जिसे भौतिक वास्तविकता भी कहा जाता है, पांच तत्वों का मिश्रण है। फिर भी जब किसी प्राणी के लिए इन पांच तत्वों का खेल खत्म हो जाता है, तब भी यह जीवन चलता रहता है। 


मरने के बाद भी जो जीवन चलता रहता है, उसे हमारे पुराणों, ग्रंथों और परंपरा में तीन लोकों की बात की जाती है – पृथ्वी लोक, नरक लोक और स्वर्ग लोक।  


एक बार आपने अपना शरीर छोड़ दिया तो आपके पास कोई विकल्प नहीं बचता। आपके पास विवेक विचार की, अंतर करने की क्षमता नहीं होती, क्योंकि आपके शरीर के साथ-साथ आपकी समझ भी चली जाती है। चूंकि आपका विवेक जा चुका है, इसलिए आप केवल अपनी प्रवृत्ति के अनुसार ही चलते हैं।


कहां हैं स्वर्ग और नरक? 


स्वर्ग-नर्क केवल सांकेतिक शब्द हैं, जो आपकी समझ और अनुभवों से संबंधित हैं। अपने स्वभाव के आधार पर ही कुछ लोग कष्टपूर्ण अवस्था में पहुंच जाते हैं। यही नहीं इन तत्वों के बीच रहते हुए भी कुछ लोग अपने अंदर पीड़ा पैदा कर लेते हैं, जबकि कुछ अपने भीतर आनंद पैदा कर लेते हैं। 


देखा जाए तो हम सब एक ही तरह के पदार्थों से निर्मित हैं, फिर भी हम एक दूसरे से कितने अलग हैं। कोई डर में है, कोई गुस्से में, कोई बेचैन है तो कोई मजे में और कोई प्यार में। सभी में घटक एक ही हैं, लेकिन हर कोई अलग-अलग तरीके से व्यवहार करता है।


सिर्फ पृथ्वी लोक में हमारे पास विवेक होता है। मानव जीवन का महत्व इसलिए है, क्योंकि आपके पास विवेक है। अगर आपने अपनी प्रवृत्ति कष्टदायी बनाई है, तो आप उसे रोक नहीं सकते। और यह कष्ट तब तक चलता रहता है, जब तक कि उसकी ऊर्जा उस सीमा तक नहीं चली जाती। 


इन दुखद और सुखद दुनिया में वास करने वाले प्राणियों को अलग-अलग श्रेणियों में बांटा गया है। यक्ष, गंधर्व, देव जैसे प्राणी आनंदमय होते हैं, परंतु वे सभी आनंद के अलग-अलग स्तरों में होते हैं।


स्वर्ग और नरक में बस प्रवृत्तियाँ आपको चलातीं हैं। इन तीन तरह के लोकों में से केवल भौतिक संसार में ही बुद्धि और विवेक सक्रिय होता है, आप में अंतर करने की क्षमता होती है। आप अपने से इतर कुछ बना सकते हैं। बाकी बची दो दुनिया में आप अपने ही द्वारा बनाई गई प्रवृत्तियों के अनुसार या तो कष्ट में रहते हैं या मजे करते हैं। 


स्वर्ग - अगर आपकी बुद्धि और अंतर करने की क्षमता वाकई में सक्रिय है तो आप अपनी प्रवृत्ति के वश में नहीं आएंगे।


नर्क - दुर्भाग्य से आज भी ज्यादातर लोग अपना जीवन अपनी प्रवृत्ति के अनुसार जी रहें हैं, अपने विवेक या, अपनी जागरूकता के अनुसार नहीं। 


जय श्री कृष्णा...

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